वो दोनों शायद अफगानिस्तान से थी , शायद क्या पक्का थी , मैं पश्तो का लहजा समझता हूँ , सफ़र लम्बा था राजीव चौक से हुडा सिटी सेंटर तक , मैंने बैठने को सीट ऑफर कर दी , मेरी वाली , ( जिसे मैं पसंद कर लेता हूँ वो मेरी वाली हो जाती है ) उसकी आँखें बेहद खूबसूरत थी , उनमे झांकना लिखा था , जितना भी था मेरे हिस्से में जी भर के झाँका , वो समझ रही थी , वो हिंदी और अंग्रेजी भी जानती थी , पर मेरी बात वो पश्तों में ही कर रही थी, बहुत सारा प्यार अभी भी बचा है यू ही बेतरतीबी से छलक जाता है वक़्त, बेवक़्त,ऐसे बीता मेरा वैलेंटाइन
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