एक अरसे से
जब से दिल्ली में हूँ
सप्ताहांत पे कवितायें लिखता हूँ
यह नियमित सा है
यह अन्तह शुद्धी सा है
हर सुबह सोमवार को
विकार पड़ जातें है
शनिवार तक इतने बढ़ जातें है
की उन्हें निकाल ही फेंकना होता है
नहीं तो
लोग घूरते है
जैसे लोग बढ़ी दाढ़ी वाले लोगो को घूरते है
की शायद बेरोजगार होगा
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