Saturday, September 29, 2012

दाढ़ी की तरह कवितायें

एक अरसे से 
जब से दिल्ली में हूँ 
सप्ताहांत पे कवितायें लिखता हूँ 
यह नियमित सा है 
यह अन्तह शुद्धी सा है 
हर सुबह सोमवार को 
विकार पड़ जातें है 
शनिवार तक इतने बढ़ जातें है 
की उन्हें निकाल ही फेंकना होता है 
नहीं तो 
लोग घूरते है 
जैसे लोग बढ़ी दाढ़ी वाले लोगो को घूरते है 
की शायद बेरोजगार होगा 

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