Sunday, July 15, 2012

सत्य की तलाश में मैं


हे इश्वर 
क्या तेरा बोध ही
सब कुछ है 
तो फिर ये 
छन भंगुर मिथ्या 
क्यों इतनी अदभुत है 
नहीं पता 
तुने ये सब क्यों रचा 
मुझे तो कोई दरकार नहीं 
शायद छुपा हो भविष्य के गर्भ में कुछ 
ऐसे भी कोई असार नहीं
मानो मैं एक शुन्य में हूँ 
साथ में कुछ निर्वात भी है 
और इसके बाहर मंडरा रही है सब चीजे 
रिश्ते नाते 
धन संपती 
और जलेबियाँ 
यहाँ कुछ  और भी 
शुन्य में पड़े व्यक्ति 
दीखते है मुझे
जिनके लपकते हाथों पे 
खीज आती है 
माँ
चाहे खिला दो गर्म रोटी 
या कस के काट लो चिकोटी
जो कहीं थोडा भी सहस मुझमे बचा होगा 
तो ये आडम्बर 
मुझसे ना होगा
कहीं शांत ही शांत है 
कहीं शोर ही शोर है 
जहाँ कुछ भी ना हो 
क्या ऐसा भी कहीं छोर है 
जब तक जीवन है 
कुछ ना कुछ 
लक्ष्य है 
पर इसमें जो अप्रत्यछ  है 
तुम सब के लिए तो 
वही सत्य है 
नहीं समझ आता मुझे 
इसका क्या है फायदा 
टेढ़े हाथों से कलछी पकड़ने  का 
जाने क्या है कायदा 

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