हे इश्वर
क्या तेरा बोध ही
सब कुछ है
तो फिर ये
छन भंगुर मिथ्या
क्यों इतनी अदभुत है
नहीं पता
तुने ये सब क्यों रचा
मुझे तो कोई दरकार नहीं
शायद छुपा हो भविष्य के गर्भ में कुछ
ऐसे भी कोई असार नहीं
मानो मैं एक शुन्य में हूँ
साथ में कुछ निर्वात भी है
और इसके बाहर मंडरा रही है सब चीजे
रिश्ते नाते
धन संपती
और जलेबियाँ
यहाँ कुछ और भी
शुन्य में पड़े व्यक्ति
दीखते है मुझे
जिनके लपकते हाथों पे
खीज आती है
माँ
चाहे खिला दो गर्म रोटी
या कस के काट लो चिकोटी
जो कहीं थोडा भी सहस मुझमे बचा होगा
तो ये आडम्बर
मुझसे ना होगा
कहीं शांत ही शांत है
कहीं शोर ही शोर है
जहाँ कुछ भी ना हो
क्या ऐसा भी कहीं छोर है
जब तक जीवन है
कुछ ना कुछ
लक्ष्य है
पर इसमें जो अप्रत्यछ है
तुम सब के लिए तो
वही सत्य है
नहीं समझ आता मुझे
इसका क्या है फायदा
टेढ़े हाथों से कलछी पकड़ने का
जाने क्या है कायदा
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