Wednesday, June 6, 2012

तुम बिलकुल गुब्बारा थी !



लाल पीले
हरे गुब्बारे
मुझको लगते तेरे जैसे सारे
तुम भी तो
ऐसे ही थी
कभी गुस्से में लाल
या फिर
मेरे देर से आने पर
अनजाने डर से पीली
और माह के थोड़े पैसों में
ना जाने कैसे
खिले रहते तेरे सपने हरे भरे
कभी कभी गुस्से में आके
छत से जा चिपकती
फिर थोड़ी देर में
खुद ही नीचे आ उतरती
और कभी कभी मैं हाथ बढाकर
उन्हें उतार भी लेता हूँ
जैसे कभी कभी
तुम्हे मनाता भी था
और मेरे रूखे कड़े हाथों में
गुब्बारे फूटते भी तो खूब हैं
और तुम भी तो फूट ही पड़ती थी
तेज आवाज़ के साथ ....!!!

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