Wednesday, May 9, 2012

तेरा अक्स

रात ने, जो चादर ली थी , उधार तुमसे वो मांग लाया हूँ वैसा ही लौटा दिया उसने झाडा तो कुछ तारे गिर पड़े शायद वो भी आना चाहते थे संग मेरे तेरे लिए कहीं - कहीं जालों पर पड़ता उजाला चमक जाता हैं तो मैं कौंध जाता हूँ की तुम नहा के तो नहीं निकली हो उन्हें मैं हटाता नहीं और वो भी कहीं नहीं जाते शायद वो भी रहना चाहतें हैं संग मेरे तेरे लिए पीछे का आम अब और घना हो गया हैं टीकोंरियां जान बूझ कर गिरती हैं आँगन में और गिलहरियाँ जान बूझ कर करती हैं अटखेलियाँ उन्हें मैं भी भागता नहीं और वो भी कहीं जाती नहीं शायद वो भी रहना चाहतें हैं संग मेरे तेरे लिए मोती अभी भी वैसे ही दम हिलाता हैं मनो तुम रोटी देने वाली हो पर मेरे दिए में वो बात कहाँ और उसे भी मैं कुछ कहता नहीं शायद वो भी रहना चाहता हैं संग मेरे तेरे लिए

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